ना शिया, ना सुन्नी, हिंदू या मुसलमान—हुसैन के दीवाने बस इंसान होते हैं

आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)
आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)

जब-जब दुनिया ने ज़ुल्म और अन्याय का क़हर देखा है, तब-तब करबला की सरज़मीं से उठी एक आवाज़ ने इंसानियत को राह दिखाई है। इमाम हुसैन का नाम सिर्फ किसी एक मज़हब या समुदाय की इबादत नहीं, बल्कि इंसाफ़, सच्चाई और हिम्मत की मिसाल है। वो जंग सिर्फ तलवारों की नहीं थी — वो जंग थी ज़मीर के ज़िंदा रहने की।

आज जब मज़हबी पहचानें दीवारें खड़ी कर रही हैं, तब इमाम हुसैन की कुर्बानी हमें याद दिलाती है कि अल्लाह या भगवान से पहले, इंसान होना ज़रूरी है। हुसैन की मोहब्बत में मज़हब की शर्त नहीं — बस दिल में इंसानियत होनी चाहिए। यही वो पैग़ाम है जो शिया-सुन्नी, हिंदू-मुस्लिम सबकी सरहदें पार करके इंसानों को एक कर देता है।

अध्यक्ष पद पर कुर्सी खाली है… और संगठन में ‘नाम’ पर कुश्ती चालू है!

क्योंकि करबला आज भी जिंदा है — हर उस दिल में, जो ज़ुल्म के सामने झुकता नहीं।

इंसानियत का चेहरा: हुसैन

इमाम हुसैन सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि वो सोच हैं जो हर ज़ुल्म के खिलाफ खड़ी होती है। करबला की मिट्टी में जो लहू बहा, वो किसी धर्म या फिरके के लिए नहीं था — वो इंसानियत की हिफाज़त के लिए था।

धर्म से ऊपर हुसैनी मोहब्बत

ना शिया होना ज़रूरी, ना सुन्नी। ना हिंदू, ना मुसलमान। हुसैन से मोहब्बत करने के लिए आपको सिर्फ और सिर्फ इंसान होना ज़रूरी है। काशी से लेकर करबला तक, मोहब्बत ने मज़हब की दीवारें तोड़ी हैं।

करबला: सिर्फ एक युद्ध नहीं, एक विचार

करबला एक ऐतिहासिक घटना जरूर है, लेकिन उससे भी ज़्यादा यह इंसानियत की वह किताब है जिसमें अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने का हौसला मिलता है।

क्यों आज भी ज़िंदा है करबला?

क्योंकि जब भी कोई सत्ता इंसाफ़ कुचलती है, जब भी कोई शासक ज़ुल्म करता है, हुसैन का नाम फिर ज़ुबानों पर आ जाता है। करबला आज भी हमें याद दिलाती है — सच्चाई चाहे अकेली हो, जीत उसी की होती है।

हुसैन किसी एक मज़हब की जागीर नहीं, वो तो इंसानियत के सरताज हैं। उनकी याद में आंसू बहाना मज़हब नहीं, इंसानी फर्ज़ है।

हज़रत इमाम हुसैन का जीवन बच्चों को क्यों बताना ज़रूरी है?

इंसाफ़, हिम्मत और इंसानियत की तालीम के लिए है करबला का पाठ। 

संवेदनशीलता और नैतिकता की पहली पाठशाला

बचपन में जो कहानियाँ हम सुनते हैं, वे सिर्फ किस्से नहीं होते — वे हमारे सोचने, समझने और जीने के तरीके तय करते हैं। हज़रत इमाम हुसैन की कहानी एक ऐसी मिसाल है, जो बच्चों को इंसाफ़, सच्चाई और ज़ुल्म के ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत देती है।

हिम्मत का मतलब सिर्फ ताकत नहीं होता

इमाम हुसैन ने जुल्म के खिलाफ लड़ाई तलवार से नहीं, अपने उसूलों से लड़ी। करबला की जंग सिखाती है कि सच्चाई के रास्ते पर चलने के लिए दिल बड़ा और नीयत साफ होनी चाहिए। बच्चों को ये समझाना ज़रूरी है कि जीत हर बार ज़िंदा रहने से नहीं होती, कभी-कभी कुर्बानी देना भी सबसे बड़ी जीत होती है।

बच्चों को रोल मॉडल की ज़रूरत होती है

आज जब बच्चे सुपरहीरो को फॉलो करते हैं, तो उन्हें यह बताना ज़रूरी है कि एक असली हीरो कौन होता है। हुसैन वो शख्स हैं जिन्होंने पानी के बिना, भूखे-प्यासे रहकर भी अपने सिद्धांत नहीं छोड़े। ऐसा रोल मॉडल बच्चों के दिल में सच्चाई, समर्पण और साहस की असली परिभाषा बिठा सकता है।

हुसैन का जीवन बच्चों के लिए सिर्फ एक ऐतिहासिक किस्सा नहीं है, बल्कि विवेक, मूल्यों और न्याय का पाठ है। करबला की मिट्टी से उठी हर कहानी उन्हें सिखाती है कि ज़िन्दगी में सबसे बड़ा धर्म है — इंसानियत।

“हुसैन सिर्फ एक नाम नहीं, एक सोच है। और उस सोच को अगली पीढ़ी तक ले जाना हमारा फ़र्ज़ है।”

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